एज़ाज़ क़मर
“मुल्लाह-वर्ग” ने बहुत चालाकी से खेल खेला और जो हदीस उनके पक्ष मे थी,उसको ‘सच्चा’ (सही) और उसके लेखक को वफादार मुसलमान बताया और जो हदीस उनके पक्ष मे नही थी,उसको ‘ग़लत’ (मौदू) और उसके लेखक को मुनाफिक (गद्दार) मुसलमान बताया।
हदीस मे जोड़-तोड़ एवं कुरान की सुविधानुसार व्याख्या से असंभव काम को इन्होने कैसे संभव कर दिखाया, इसको निम्नलिखित उदाहरणो के अध्ययन और विश्लेषण से समझा जा सकता है :-
(1) “अमरूहुम शूरा बै-नहुम”
[(“….Amruhum Shura Baynahum…..”)
(Quran 42:38)] के अर्थ को “राजनैतिक परामर्श” के बजाय ‘समाजिक परामर्श’ बताकर “लोकतंत्र” (Democracy) की भ्रूण-हत्या कर दी।
(2) “देशप्रेम ईमान (धर्म) का हिस्सा है” [To love your country is a part of Iman (your faith)] की हदीस को मौदू (Fabricated) बताकर ‘देशप्रेम’ को नकारते हुये “राष्ट्रवाद की अवधारणा” (Concept of Nationalism) को जल-समाधि दे दी।
(3) “अल्पसंख्यको (धिम्मी) के साथ दुर्व्यवहार का अभिप्राय अल्लाह के आदेश का विरोध करना (बग़ावत) है” (Whoever mistreats a dhimmi will be Allah’s opponent) की हदीस को मौदू (Fabricated) बताकर अल्पसंख्यको के अधिकारो का हनन करते हुये “सह-अस्तित्व” (Coexistence) की भावना का गला घोट दिया।
(4) पैगंबर साहब के पड़ोसी (यहूदी) के साथ मधुर रिश्ते (Harmonious Relationship with Jewish neighbor) की हदीस को मौदू (Fabricated) बताकर ‘धार्मिक असहिष्णुता’ के ज़हर को समाज की नसो मे भरकर “समग्र-संस्कृति” (Composite Culture) को मृत्यु-शैय्या पर पहुंचा दिया।
(5) “जितना हो सके कानूनी सजा को कम करे ……” (Ward off the legal punishments as much as you can) हदीस के इस भाग के भावार्थ को नकारते हुये क्रूर और अत्याचारी शासको को निरंकुश बनाकर “राष्ट्र द्वारा प्रायोजित आतंकवाद” (State Sponsored Terrorism) को संजीवनी प्रदान करी।
(6) “अपने अधीनस्थो के साथ दुर्व्यवहार करने वाला नर्क का भोगी होगा” (One who treats his subordinates badly will never enter Paradise) की हदीस को मौदू (Fabricated) बताकर इस्लाम की ‘विकेंद्रीकृत समाजवादी (Socialist) व्यवस्था’ को ‘केंद्रीकृत साम्राज्यवादी (Imperialist) व्यवस्था’ मे ढाल दिया।
(7) “पैगंबर साहब के अलविदाई खुदबा (धर्मापदेश)” [Muhammad’s (ﷺ) Farewell Sermon] की हदीस को ज़ईफ (Weak) बताकर मानव इतिहास के प्रथम “समानता के घोषणापत्र” (Charter of Equality) को अस्वीकार करते हुये नीतिवचन’ (Policy Formulation & Declaration) को ‘धर्मविषयक व्याख्यान’ (Spiritual Lecture) बना दिया, क्योकि इस अन्तिम खुदबे मे पैगंबर साहब ने कहा था; कि “अरब और अजम (ग़ैर-अरब) बराबर है, गोरे और काले बराबर है, महिला और पुरुष बराबर है”।
(8) उम्मत मे इख़्तिलाफात एक रहमत है अर्थात “मनभेद होना चाहिये मतभेद नही” ” (Differences of opinion among my ummah is a mercy) की हदीस को मौदू (Fabricated) बताकर “विविधता मे एकता” अर्थात “विखंडन के बिना एकरूपता” की अवधारणा को बड़ी कुटिलता से तिलांजलि दे दी और इस्लाम को ‘अरब राष्ट्रवाद’ बनाकर अरब और ग़ैर-अरब के बीच मे ‘सभ्यता का टकराव’ (Clash of Civilization) पैदा कर दिया। बड़ी हैरानी की बात है, कि अधिकतर मुस्लिम विद्वान इस हदीस मे “भाषाई अशुद्धि” (Spelling Errors) पाते है अर्थात ‘सुनने या लिखने मे गलती हो गई है’, किंतु इनको इतनी छोटी सी बात समझ नही आती है, कि “इस्लाम समावेशी (Inclusive) है” और समस्त नस्ल, जाति, रंग, लिंग, क्षेत्र, भाषा इत्यादि के लोगो को अपनी ताकत मानता है कमजोरी नही, इसलिये पैगंबर साहब ने इसे रहमत बताया होगा, किंतु ‘विशिष्टता (Superiority) के सिद्धांत’ को मानने वाले मुसलमानो के गले से यह बात नही उतरती है, कि वह “सत्ता मे अपने से आर्थिक रूप से कमज़ोर और समाजिक रूप से पिछड़े मुसलमानो के साथ साझीदारी करे” (Sharing of Political Power with Muslims from Economically Poor & Socially Backward Section)।
(9) “दरिद्रता मेरा अभिमान है और गरीबो की मदद करते रहो” (Poverty is my pride, and do favors for the poor) की हदीस को मौदू (Fabricated) बताकर अपनी श्रमिक (मजदूर) विरोधी मानसिकता को उजागर किया। इस हदीस को आज की भाषा मे ‘साम्यवादी वक्तव्य’ कहा जायेगा, किंतु वास्तव मे साम्यवादियो ने इस्लाम से “श्रमिक नीति” (Labour Policy) उधार ली है, चाहे ‘वह पसीना सूखने से पहले मज़दूर की मज़दूरी देने का आदेश’ अर्थात ‘वेतन नीति’ (Wages Policy) हो या पैगंबर साहब द्वारा ‘मजदूरो के हाथ मे पड़े ठेठ (Hand’s typical) को चूमने का मंज़र’ हो।
(10) “एक कंजूस स्वर्ग के लिये अयोग्य है” (A stingy person shall never be allowed to enter Paradise) की हदीस को मौदू (Fabricated) बताकर इस्लाम के ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ की ‘ब्याज़-मुक्त मिश्रित अर्थव्यवस्था’ (समाजवादी) को क्षति पहुंचाते हुये सामंतवादी वर्ग के आर्थिक हितो की रक्षा करी, क्योकि शासक, उसके रिश्तेदार, मंत्री, जमीदार, पदाधिकारी तथा चाटुकार व्यापारी वर्ग के पास ही धन-दौलत का संग्रह होता था।
(11) “दया आस्था का प्रतीक है” (Kindness is a mark of faith) की हदीस को मौदू (Fabricated) बताकर मुसलमानो को मुंह दिखाने के काबिल नही छोड़ा, “प्रेममार्गी इस्लाम की घृणास्पद” और ‘रहमदिल मुसलमान कौम की बेरहम’ छवि बना दी। अल्लाह कहता है, कि सारे बंदे (इंसान) मेरे पैदा किये हुये है और मैं हर इंसान से उसकी मां की तुलना मे 70 गुना अधिक प्रेम करता हूं। अगर कोई व्यक्ति इस्लाम स्वीकार ना करे, तो उसको सज़ा देने का अधिकार किसी व्यक्ति (मुसलमान) को नही है, बल्कि मुझे (अल्लाह) है और मैं उसे मरने के बाद सजा दूंगा, मुसलमान का दायित्व गैर-मुसलमान को सिर्फ निमंत्रण (दावत / Dawah) देना है। क्योकि “ग़ैर-मुस्लिम भी आदम की संतान है” अर्थात मुसलमान का भाई है, इसलिये एक ग़ैर-मुस्लिम पड़ोसी, कर्मचारी और प्रजा (नागरिक) के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिये,जैसे एक मुसलमान के साथ (दयापूर्ण) करना चाहिये।
(12) “निकाह करो और तलाक से बचो” (Marry and do not divorce) की हदीस को मौदू (Fabricated) बताकर ‘संयुक्त परिवार व्यवस्था’ की जड़ो को खोखला करते हुये मुसलमानो मे ‘परिवारिक विघटन’ और समाजिक बिखराव का षड्यंत्र रचा, परिणाम स्वरूप आपसी संघर्ष का ऐसा दौर चला, कि जिसने बड़े-बड़े मुस्लिम घरानो की नींव हिला दी और भाई को अपने भाई के खून का प्यासा कर दिया।
(13) “जब पति-पत्नी एक-दूसरे की तरफ मोहब्बत की निगाह से देखते है, तो अल्लाह बरकत फरमाता है” (When a husband and wife look at each other with love, Allah looks at both with mercy) की हदीस को मौदू (Fabricated) बताकर परिवार के मुख्य स्तंभ पति-पत्नी के रिश्ते मे खटास को पैदा करते हुये इस्लाम के प्रेम, त्याग, सहनशीलता, सहयोग, सहानुभूति और रिश्ते के महत्व वाले सिद्धांतो को तिलांजलि दे दी। {“आदमी जब अपनी पत्नी को पानी पिलाता है, तो उसे (पति) उसका भी सवाब मिलता है”।
(तबरानी संख्या 858)}
पत्नी को ‘भोग विलास की वस्तु’ बना दिया, जबकि इस्लाम ने पत्नी को ‘घर की मल्लिका’ बनाया था, घर मे झाड़ू-पोछा लगाना, बर्तन धोना, खाना बनाना, कपड़ो की सिलाई करना और बच्चो को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी पति की भी है।
{यह पूछे जाने पर कि “पैगंबर साहब अपने घर मे कैसे रहते थे?”
पैगंबर साहब की पत्नी बीवी आयशा ने कहा; कि “वह अपने जूते की मरम्मत खुद करते थे, अपने कपड़े खुद सिलते थे और बिना किसी शिकायत के ज़्यादा से ज़्यादा घर के सारे काम करते थे।
(अल-अलबानी द्वारा प्रमाणित)}
{“पैगंबर साहब ने अपने खुद के कपड़े सियेे (stitched), अपने जूतो को सिया और अपने घर मे वह सारे काम किये, जो काम दूसरे पुरुष करते है (आम मर्द अपने घर पर जो घरेलू काम करते है)”।
(अल-मसनद मे इमाम अहमद द्वारा लिखित संख्या 6/121; सही अल-जामी संख्या 4927)}
{‘जब तक नमाज़ के लिये जाने का समय नही हो जाता, तब तक पैगंबर साहब घरवालो की सहायता (घरेलू कामो मे) करते रहते थे”।
(बुखारी संख्या 2/162 )
ससुराल वालो के अधिकारो का हनन किये बगैर और इस्लामिक कानून की सीमा के अंदर रहते हुये ‘पत्नी को निकाहनामा मे अपनी शर्तो को लिखवाने का अधिकार इस्लाम से प्राप्त है’,अगर वह चाहे तो तलाक देने का अधिकार भी अपने पास रख सकती है,किंतु अब जब भारत मे तलाक को लेकर मुसलमानो की बहुत बदनामी हो गई तो ‘मुल्लाह वर्ग’ को ‘मॉडल निकाहनामा’ की याद आ रही है।
“पितृसत्तात्मक आधिपत्य” साम्राज्यवादी और पूंजीवादी शक्तियो को ‘आधार’ प्रदान करता है, इसलिये महिलाओ को सत्ता से बेदखल किया जाता है, मुल्लाह वर्ग द्वारा महिलाओ को हाशिए पर पहुंचाने का सफल षडयंत्र किया गया, जिससे आज महिलाओ की स्थिति दयनीय हो गई है, किंतु उससे भी ज़्यादा नुकसान ‘तीसरे लिंग’ अर्थात समलैंगिको को उठाना पड़ा और उनका जीवन नर्क बन गया।
इस्लाम ने ‘जन्म से नपुंसक’ और ‘पुंसत्व-हरण (Castrations) वाले किन्नर’ को “तीसरे लिंग” के रूप मे पहचान दी, नमाज़ मे महिलाओ और पुरुषो से अलग पंक्ति बनाकर उन्हे नमाज़ पढ़ने का अधिकार भी दिया, फिर समान वैधानिक, राजनैतिक, आर्थिक और धार्मिक अधिकार देकर समाज की मुख्यधारा से जोड़ा। इसलिये मुसलमानो मे तीसरे लिंग वाले बड़े-बड़े पदो पर आसीन होकर सम्मानित जीवन जीते थे, किंतु मुल्लाह वर्ग ने धार्मिक, नस्लीय, क्षेत्रीय और भाषाई अल्पसंख्यको के साथ-साथ लैंगिक अल्पसंख्यको को भी निशाना बनाकर मानवतावादी इस्लाम को अत्याचारी धर्म बना दिया।
(14) “जिहाद-ए-अकबर और जिहाद-ए-असग़र” (Lesser vs Greater Jihad) की हदीस को मौदू (Fabricated) बताकर इस्लाम को इतना नुकसान पहुंचाया, जिससे मुसलमानो की “दिशा और दशा” ही बदल गई।अलग-अलग विद्वानो और मुस्लिम धर्मगुरुओ ने संघर्ष (जिहाद) की अलग-अलग श्रेणिया बताते हुये जिहाद को वर्गीकृत किया है, किंतु सभी इस बात पर सहमत है, कि सर्वश्रेष्ठ संघर्ष (जिहाद-ए-अकबर) का अभिप्राय “इंद्रियो पर नियंत्रण करना है”, निम्न स्तरीय संघर्ष (जिहाद-ए-असग़र) का अभिप्राय ‘क्रूर शासक के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करना’ है।
अधिकतर विद्वानो के अनुसार सर्वश्रेष्ठ जिहाद (इंद्रियो पर नियंत्रण) के बाद दूसरे नंबर का जिहाद “माता-पिता” की सेवा करना है। इस हदीस को नकार देने के बाद जिहाद का अर्थ सिर्फ ‘गै़र-मुस्लिमो के विरुद्ध युद्ध’ करना हो गया, फिर बीसवीं शताब्दी मे इसे अपने राजनीतिक विरोधी मुसलमानो (मुर्तद) के विरुद्ध हथियार बना दिया गया।
{(15) “इल्म हासिल करना हर मुसलमान के लिये फर्ज़ है” अर्थात ‘ज्ञान अर्जित करना प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है’ (Seeking knowledge is a duty upon every Muslim)
(16) “एक घंटे का चिंतन साठ वर्षीय तपस्या से बेहतर है” (Thinking for an hour is better than worshiping for sixty years)
(17) “एक दानिशवर (बुद्धिजीवी) की रोशनाई (कलम की) एक मुजाहिदीन के खून ज़्यादा पाक है” (The ink of the scholar is more holy than the blood of the Martyr)
(18) “इल्म हासिल करने के लिये अगर चीन जाना भी पढ़े, तो जाओ” (Seek knowledge, even if you have to go to China)}
उपरोक्त लिखित चार हदीस (15-18) को मौदू (Fabricated) बताकर साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा “बौद्धिकता” (Intellectualism) को बड़ी सफाई से रास्ते से हटाकर भविष्य मे मिलने वाली चुनौतियो को जड़ से उखाड़ फेका गया।
[“इक़रा बिस्मे-रब्बिकल लज़ी ख़लक” (अपने परवरदिगार के नाम से पढ़िए, जिस ने (सब कुछ) पैदा किया है)
(सूराह अल अलक़ 96:1)]
[“इक़रा व रब्बुकल अकरम” (पढ़िए, और आपका रब बड़ा करम करने वाला है)
(सूराह अल अलक़ 96:3)]
[“अल्लज़ी अल्लमा बिल क़लम” (जिस ने क़लम के ज़रिये तालीम दी)
(सूराह अल अलक़ 96:4)]
[“अल्लमल इंसान मालम या-लम” (इन्सान को वो सिखाया, जो वो नही जानता था)
(सूराह अल अलक़ 96:5)]
कुरान का पहला शब्द “इक़रा” (Recite) है और जिसका अर्थ है ‘सुनाओ’ अर्थात “पढ़ो”,
इसमे हैरानी की कोई बात नही है, क्योकि पैगंबर का कार्य ही लोगो को ‘ज्ञान देना’ अर्थात पढ़ाना होता है।
लगभग सारे मुल्लाह एकमत से जंग (युद्ध) को ही जिहाद मानते है अर्थात परिभाषित करते है और अपनी बात के समर्थन मे निम्नलिखित हदीस का हवाला देने का प्रचलन है, {अम्र बिन अबासाह ने सुनाया, कि मैने पैगंबर साहब के पास जाकर पूछा, “हे अल्लाह के नबी! ‘कौन सा जिहाद सर्वश्रेष्ठ है?’ उन्होने कहा; (वह आदमी) जिसका खून बहा है और उसका घोड़ा घायल है”।
(सुनन इब्ने माजा संख्या 2794)}
इन अज्ञानियो को यह बात समझ मे नही आती है, कि अब युद्ध तलवार, भाला, गदा और तीर-कमान से नही लड़ा जाता है और नाही मलयुद्ध (कुश्ती) होता है। अब युद्ध तकनीक से लड़ा जाता है, एक एयर कंडीशन कमरे मे बैठा हुआ एक फौजी अपनी मेज पर लगे उपकरण का बटन दबाकर एक परमाणु मिसाइल से शत्रु के पूरे शहर का विनाश कर सकता है।
आजकल ‘बिना पायलट (मानव) वाले विमान’ का युग है, अब तो सामने आये बगैर दुश्मन को क्षति (नुकसान) पहुंचाई जाती है, इसे ‘पांचवी पीढ़ी का युद्ध’ (Fifth Generation Warfare) अर्थात ‘हाइब्रिड वार’ (Hybrid War) कहते है (जैसे “कोरोना वायरस” और “मीडिया द्वारा किया जाने वाला प्रोपेगंडा”)। ऐसे मे अगर युद्ध करना है, तो ज्ञान अर्जित करना पड़ेगा और उसके लिये चीन जाना पड़ेगा, क्योकि अमेरिका और रशिया तो मुसलमानो पर भरोसा नही करते है,इसलिये वह कभी अपनी टेक्नोलॉजी मुसलमानो को नही देगेे।
टेक्नोलॉजी सिर्फ चीन ही दे सकता है, इसलिये पैगंबर साहब ने कहा था; कि “इल्म हासिल करने के लिये चीन जाओ”, भले ही हदीस मौदू (Fabricated) साबित की जाती है, फिर भी आज की परिस्थितिया इसे अपने आप ही सही हदीस (Authentic) साबित (प्रमाणित) कर रही है।
उपरोक्त वर्णित हदीसो मे हेरा-फेरी करके ‘मुल्लाह-वर्ग’ ने “मानवतावादी और समाजवादी इस्लाम” को “साम्राज्यवादी और पूंजीवादी इस्लाम” बनाने का भरसक प्रयत्न किया, किंतु इन्हे डर लगा रहता था, कि आध्यात्मिक धर्मगुरुओ (सूफीवादियो) की शिक्षाओ से जनता ‘असली और नकली’ इस्लाम के अंतर को समझ कर क्रांति कर देगी, इसलिये इन्होने ‘कुरान की मनचाही व्याख्या और हदीस की हेरा-फेरी’ से सम्राटो (तानाशाहो) के समर्थन मे प्रचार करके अनुकूल वातावरण बनाने का प्रयास किया।
[“ऐ ईमान लानेवालो!
अल्लाह की आज्ञा का पालन करो और रसूल का कहना मानो और उनका भी कहना मानो जो तुममे अधिकारी लोग है……….”।(कुरान 4:59)]
{इब्ने अब्बास ने सुनाया, कि पैगंबर साहब ने कहा; “अगर अपने शासक मे कोई ऐसी चीज़ (बुराई) पाता है, जो उसे पसंद नही है, तो वह सबर करे……..”।
(बुखारी और मुस्लिम)
{अबु बक़र ने सुनाया, कि पैगंबर साहब ने कहा; “जो अपने शासक की बेइज्ज़ती करता है, अल्लाह उसकी बेइज्ज़ती करेगा”।
(तिर्मिदी)}
{अबू हुरैरा ने सुनाया, कि पैगंबर साहब ने कहा; “जिसने मेरे आदेश का पालन किया, तो उसने अल्लाह के आदेश का पालन किया, जिसने मेरे आदेश का पालन नही किया, तो उसने अल्लाह के आदेश का पालन नही किया, जिसने अपने नेता (अमीर) का पालन किया, तो उसने मेरा पालन किया, जिसने अपने नेता (अमीर) का पालन नही किया, तो उसने मेरा पालन नही किया”।
(बुखारी और मुस्लिम)}
{अनस ने सुनाया, कि पैगंबर साहब ने कहा; “अगर एक ‘मुनक्के जैसे सर’ वाला (महामूर्ख) अबीसीनिसन (पूर्वी अफ्रीकन) गुलाम भी शासकीय अधिकारी है, तो ‘उसका (आदेश) सुने और माने’ (पालन करे)”।
(बुखारी)}
उपरोक्त लिखित हदीस मुल्लाह वर्ग की बौद्धिक कुटिलता का नायाब नमूना है, जिसने इस्लाम का स्वरूप बदलकर मुसलमानो मे लोकतंत्र का खात्मा कर दिया और तानाशाही परंपरा की जड़े ऐसी जमा दी, जो कि 21वीं सदी मे भी मजबूती से जमी हुई है। कुछ महान और क्रांतिकारी विद्वानो ने इनका विरोध किया, तो उन्हे “इमाम अबू हनीफा” की तरह गिरफ्तार करके जेल मे ही कत्ल कर दिया गया, “इमाम मालिकी” की तरह उनके हाथ टुड़वा दिये गये और “इमाम शाफी” की तरह भरी सभा मे अपमानित किया गया। मुल्लाह वर्ग के कुकर्म और फर्जीवाड़े की वजह से आज ‘असली और नकली इस्लाम’ को पहचानना मुश्किल हो गया है, ग़ैर-मुस्लिमो के लिये तो यह फर्क समझना टेढ़ी खीर होता है, इसलिये “लेनिन” और “बाबा साहब अंबेडकर” जैसे महापुरुष इस्लाम मे रुचि दिखाकर पीछे हट जाते है।
अंतर्मन से बड़ा हमदर्द और वफादार कोई और नही हो सकता है,इसलिये इंसान जब विभ्रान्ति के कारण परेशान हो तो उसे अपने अंतर्मन से पूछना चाहिये, क्योकि वही उचित रास्ता बताता है। इस्लाम मे रुचि रखने वाले ग़ैर-मुस्लिम के लिये यह समस्या पैदा होती है, कि वह ‘कुरान की किस व्याख्या को सही माने?’ और ‘किस हदीस को सच्चा माने?’
उदारवादी और युवा मुसलमान के लिये यह समस्या पैदा होती है, कि वह किस तरह ‘समकालीन विश्व’ (contemporary world) के साथ तालमेल बिठाकर ‘जीवन व्यतीत करे?’ अब इतने अधिक ‘भ्रम की स्थिति’ मे क्या करे?
इन समस्याओ के समाधान के लिये अपने अंतर्मन से एक प्रश्न करे; कि “पैगंबर हज़रत मोहम्मद साहब (ﷺ) संसार मे राजनैतिक व्यवस्था (सुधार) बदलने के लिये आये थे या समाज सुधार के लिए आये थे?” आपको जवाब मिलेगा “समाज सुधार”। फिर अपने अंतर्मन से दूसरा प्रश्न करे; “समाज सुधार की परिकाष्ठा क्या होनी चाहिये ?” अर्थात “स्वयं भी सुधारना चाहिये या सिर्फ दूसरो को ही उपदेश देते रहना चाहिये?” तब जवाब मिलेगा, कि ‘पहले स्वयं का शुद्धिकरण होना चाहिये’ अर्थात “अपनी इन्द्रियो के ऊपर नियंत्रण करना चाहिये”। फिर आपका अंतर्मन अपने आप ही तीसरा प्रश्न करेगा; कि “इस्लामिक देश की राजनीतिक व्यवस्था (Political System of Islamic Nation) कैसी होनी चाहिये?” जवाब पहले से ही उपलब्ध है, “परामर्श” अर्थात “लोकतंत्र” (Democracy)।
लोकतंत्र का स्वरूप कैसा होना चाहिये? “मदीना का संविधान (622 वीं ई०)” मौजूद है अर्थात “लोक कल्याणकारी राज्य” (Public Welfare State)। क्या “यहूदियो की तरह सारे ‘विश्व के मुसलमानो का एक ही राष्ट्र’ होना चाहिये अर्थात ‘खिलाफत’?” यद्यपि धार्मिक और सामाजिक रूप से ‘सारे मुसलमान एक ही कौम (राष्ट्र) है’, किंतु राजनीतिक रूप से यह कठिन कार्य है। क्योकि इस्लाम का मत है, कि आग, पानी, नमक और भूमी से निकलने वाले सारे पदार्थो (तेल, सोना, चांदी, प्लेटे़नियम और दूसरी बहुमूल्य धातु) पर पूरी कौम अथवा समुदाय (राष्ट्र के नागरिको) का अधिकार है। हालांकि यह व्यवहारिक नही लगता है, कि नाइजीरिया के पेट्रोल पर बांग्लादेशियो का अधिकार हो फिर भी सहयोग की नई परिभाषा रची जा सकती है और आपस मे एक दूसरे की आर्थिक सहायता की जा सकती है।
तो “क्या यूरोपियन यूनियन की तरह अलग-अलग देशो का एक संयुक्त संगठन बनाना चाहिये?”
जी “हां”,
इस्लाम के सिद्धांतो और आज की परिस्थितियो को ध्यान मे रखते हुये मुस्लिम देशो का क्षेत्रीय आधार पर “यूरोपियन यूनियन जैसा संगठन” (ख़िलाफत) होना चाहिये, जो सिर्फ “रक्षा, विदेश, संचार और मुद्रा का अधिकार अपने पास रखे” और बाकी मामलो मे सारे देश अपनी नीतियां बनाने और निर्णय लेने मे स्वतंत्र हो।
लोकतांत्रिक मुस्लिम देशो का आर्थिक तंत्र कैसा होना चाहिये?
“ब्याज-मुक्त समाजवादी व्यवस्था” अर्थात “मिश्रित अर्थव्यवस्था”।
अधिकारो का निर्धारण कैसे हो?
कुरान के अनुसार “सभी मनुष्य समान है”।
पैगंबर साहब ने भी अरब-ग़ैरअरब, गोरे-काले, मुसलमान-ग़ैरमुसलमान, औरत-मर्द, स्वस्थ-विकलांग और विषमलिंगी-समलिंगी सबको बराबरी का दर्जा दिया है, इसलिये सबको बराबर वोट देने का अधिकार होना चाहिये अर्थात “वोट का मूल्य समान होना चाहिये”। सभी नागरिको को चाहे वह किसी धर्म-पंथ, जाति, वर्ग, क्षेत्र, नस्ल, रंग, लिंग के हो, सबको भोजन-पानी, निवास, न्याय, खेल-कूद, मनोरंजन, शिक्षा, पूजा का समान अधिकार होना चाहिये अर्थात “किसी भी तरह का कोई भेदभाव नही होना चाहिये”। महिलाओ को संसद मे एक तिहाई आरक्षण देना चाहिये, अल्पसंख्यको को उनकी आबादी के हिसाब से संसद मे सीटे देना चाहिये, किन्तु वह ‘कम्युनल अवार्ड’ जैसी व्यवस्था के अंतर्गत अपने धर्म के संसद सदस्यो का चुनाव करे।
इस्लाम मे “संपत्ति-कर” (Wealth Tax) होता है, किंतु वर्तमान परिस्थितियो मे “आयकर” (Income Tax) भी होना जरूरी है, चूँकी महिलाओ की तुलना मे पुरुषो को पैतृक संपत्ति, संसाधनो और सेवाओ मे दोगुना हिस्सा दिया जाता है, इसलिये कर (टैक्स) भी पुरुषो से दोगुना (डबल) लिया जाना चाहिये।
अल्पसंख्यको से “तीर्थ-कर” (जज़िया) लिया जाना चाहिये, बदले मे उन्हे संपत्ति-कर (ज़कात) माफ कर देना चाहिये, क्योकि इस्लाम मे ‘ज़कात’ या ‘जज़िया’ मे से एक ही टैक्स लिया सकता है।किंतु यह वैकल्पिक होना चाहिये, क्योकि ‘जज़िया’ एक प्रतिशत से भी कम होगा और ‘ज़कात’ ढाई प्रतिशत होगी, वास्तव मे जजि़या शोषण नही है,बल्कि एक सुविधा है। “नौकरी और व्यवसाय मे सभी को समान अधिकार” होना चाहिये, किंतु क्षेत्र आरक्षित होना चाहिये,’रक्षा-निर्माण, संचार और औषधि का क्षेत्र सिर्फ मुस्लिम पुरुषो तक ही सीमित रहना चाहिये।
महिलाओ को शिक्षा, स्वास्थ्य, कला, खेल-कूद, खाद्य-पदार्थ, वस्त्र, जूते, सौंदर्य-प्रसाधन, दैनिक उपयोग की दूसरी वस्तुओ से संबंधित व्यवसाय के लिये प्रोत्साहन देने वाली नीतियो का निर्माण होना चाहिये, अल्पसंख्यको को जमीन-जायदाद, कृषि, तेल, खनन, स्वच्छता, बर्तन और आभूषण का व्यवसाय करने मे प्रोत्साहन देना चाहिये।
समान वेतन पर महिलाओ की शिफ्ट 8 घंटे और पुरुषो की शिफ्ट 12 घंटे होना चाहिये, क्योकि 8 घंटे के बाद एक घंटा 2 घंटे के बराबर माना जाता है, इसलिये लगातार 12 घंटे की शिफ्ट सामान्य 16 घंटे के बराबर हुई।
स्नातक के बाद ही छात्रो को ‘कला’ और ‘धार्मिक’ शिक्षा की इजाज़त होनी चाहिये, कम से कम एक वर्ष की ‘सैनिक सेवा’ हर नागरिक के लिये अनिवार्य होना चाहिये, अमेरिका जैसी “राष्ट्रपति शासन प्रणाली” (सदारती निज़ाम) तथा चुनाव प्रणाली (वोटिंग) “अनुपातिक” होना चाहिये।
यक्ष प्रश्न यह होता है, कि इस नई राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था से तालमेल बिठाते हुये आम मुसलमान आसानी से जन्नत कैसे प्राप्त करे? कैसे आसानी से सफल जीवन जिये और वह नर्क (जहन्नम) मे जाने से भी बच जाये? उत्तर बहुत सरल है, इस्लाम को चार चरणो मे बांटकर अपनी जीवन शैली निर्धारित करो :-
पहला चरण अल्लाह के पांच फर्ज़ का है, जिसमे कलमा, नमाज़ रोज़ा, हज और ज़कात है।
दूसरा चरण बंदो (इंसानो) के फर्ज़ (मानवाधिकार) का है अर्थात हुक़ुकुल-अबाद”, जिसमे आपको दूसरे व्यक्तियो के ‘मानवाधिकार हनन’ (Violation of Human Rights) से बचना होगा, वरना आप दोषी माने जायेगे और अल्लाह के बजाय आपको उसी व्यक्ति से माफी मांगनी होगी, जिसके मानवाधिकारो का आपने हनन किया है।
तीसरा चरण “अमर बिल मारुफ नही अनिल मुनकर” का है अर्थात ‘खुद अच्छे काम करने के साथ-साथ दूसरो को भी अच्छे काम करने के लिये प्रेरित करने’ का चरण है।
चौथा चरण “संघर्ष अर्थात जिहाद” का है, इसमे आपको संघर्ष करके क़ुरबानी देनी पड़ती है, यह क़ुरबानी धन-दौलत, ज़बान-क़लम और हाथ-पैर से दी जा सकती है, इस संघर्ष मे आपको सिर्फ जीतना है, चाहे ‘वह आपकी अपनी इंद्रियां हो, माता-पिता का दिल हो या युद्ध का मैदान’।अगर आप गरीब और शारीरिक रूप से सेवा करने मे असमर्थ है,तो आप मां-बाप की तरफ सिर्फ मुस्कुरा कर प्यार-भरी निगाह से देख लीजियेगा और उनको शालीनता से जवाब दीजियेगा,तो यह भी बहुत बड़ा सवाब होगा, इसे भी जिहाद की श्रेणी मे रखा जाता है और यह ‘युद्ध वाले जिहाद’ से बड़ा है।
{अब्दुल्लाह बिन मसूद ने सुनाया, कि मैंने पैगंबर साहब से पूछा;
“ऐ अल्लाह के नबी! सबसे अच्छा काम क्या है?”
उन्होने जवाब दिया; “अपने निर्धारित समय पर प्रार्थना (नमाज़) करना”।
मैने पूछा, “अच्छाई मे इसके बाद अगला काम क्या है?” उन्होने जवाब दिया; “अपने माता-पिता के लिये अच्छा (सेवा करने वाला) होना और जिम्मेदार (कर्तव्यपरायण) होना।”
मैने आगे पूछा, अच्छाई मे इसके बाद अगला काम क्या है?” उन्होने जवाब दिया; “अल्लाह के लिये जिहाद मे हिस्सा लेना।” इसके बाद मैंने अल्लाह के नबी (पैगंबर साहब) से कुछ नही पूछा और अगर मैने उनसे कुछ पूछा होता, तो वह मुझे और कुछ बताते।
(साही बुखारी नंबर 2782)}
सहाबा बहुत समझदार थे, इसलिये उन्होने ज्यादा कुरेदना (Enquiry) उचित नही समझा, वर्तमान के मुसलमानो के लिये भी यही शिक्षा है, कि जितना जानते हो वही बहुत है, इसलिये पहले उसी पर अमल कर लो और ज्यादा मुल्लाह चक्कर मे ना पड़ो।
अगर हलाल रोज़ी के साथ सिर्फ फर्ज़ की अदायगी करोगे, तो भी अल्लाह इम्तिहान मे पास कर देगा, किंतु याद रखो, कि किसी का हक नही मारना है, वरना अल्लाह माफ नही करेगा।
इस्लाम बहुत ही आसान और व्यवहारिक मज़हब है, इसलिये मुल्लाह के दिखाये मार्ग पर चलकर, खुद को भ्रम मे मत डालो।
[“There is no compulsion in religion…..”
(Quran 2:256).
“दीन (मज़हब) मे किसी तरह की (कोई) जबरदस्ती नही है……”
(कुरान २:२५६)]
याद रखो कि गै़र-मुस्लिम अल्लाह के बताये मार्ग को नही जानते है और ना जानना चाहते है, बल्कि तुम्हारा चरित्र देखकर उसे ही इस्लाम समझते है
इसलिये जितना ज़्यादा हो सके ‘मुल्लाह से दूर रहो’ और “अल्लाह के इस्लाम पर अमल करो”।